August 3, 2022

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मियां साहब इमामबाड़ा ऐतिहासिक इमारत ही नहीं इतिहास का जीवंत दस्तावेज भी है।

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मियां साहब इमामबाड़ा ऐतिहासिक इमारत ही नहीं इतिहास का जीवंत दस्तावेज भी है।

सेराज अहमद कुरैशी

गोरखपुर, उत्तर प्रदेश।

मियां बाजार स्थित मियां साहब इमामबाड़ा इस्टेट की ऐतिहासिक इमारत इतिहास का जीवंत दस्तावेज है। यह इमामबाड़ा सामाजिक एकता व अकीदत का केंद्र है। यह हिंदुस्तान में सुन्नियों संप्रदाय का सबसे बड़ा इमामबाड़ा है। इमामबाड़े के दरो दीवार व सोने-चांदी की ताजिया में अवध स्थापत्य कला व कारीगरी रची बसी नज़र आती है। इमामबाड़ा के गेट पर अवध का राजशाही चिन्ह भी बना हुअा है। करीब तीन सौ सालों से हज़रत सैयद रौशन अली शाह द्वारा जलाई धूनी आज भी जल रही है।

मियां साहब इमामबाड़ा इस्टेट के संस्थापक हजरत सैयद रौशन अली शाह ने 1717 ई. में इमामबाड़ा तामीर किया। विकीपीडिया में भी इमामबाड़ा की स्थापना तारीख़ 1717 ई. दर्ज है। वहीं ‘मशायख-ए-गोरखपुर’ किताब में इमामबाड़ा की तारीख 1780 ई. दर्ज है। इसी समय मस्जिद व ईदगाह भी बनीं। खैर।

हजरत सैयद रौशन अली शाह बुखारा के रहने वाले थे। वह मोहम्मद शाह के शासनकाल में बुखारा से दिल्ली आये। इतिहासकार डा. दानपाल सिंह की किताब गोरखपुर-परिक्षेत्र का इतिहास (1200-1857 ई.) खण्ड प्रथम में गोरखपुर और मियां साहब नाम से पेज 65 पर है कि यह एक धार्मिक मठ है जो गुरु परम्परा से चलता है।

दिल्ली पर अहमद शाह अब्दाली के आक्रमण के समय इस परम्परा के सैयद गुलाम अशरफ पूरब (गोरखपुर) चले आये और बांसगांव तहसील के धुरियापार में ठहरे। वहां पर उन्होंने गोरखपुर के मुसलमान चकलेदार की सहायता से शाहपुर गांव बसाया। इनके पुत्र सैयद रौशन अली अली शाह की इच्छा इमामबाड़ा बनाने की थी। गोरखपुर में उन्हें अपने नाना से दाऊद-चक नामक मोहल्ला विरासत में मिला था। उन्होंने यहां इमामबाड़ा बनवाया। जिस वजह से इस जगह का नाम दाऊद-चक से बदलकर इमामगंज हो गया। मियां साहब की ख्याति की वजह से इसको मियां बाजार के नाम से जाना जाने लगा। उस समय अवध के नवाब आसिफुद्दौला थे। जिन्होंने दस हजार रुपया इमामबाड़ा की विस्तृत तामीर के लिए हजरत सैयद रौशन अली शाह को दिया। हजरत रौशन अली शाह की इच्छानुसार नवाब आसिफुद्दौला ने करीब छह एकड़ के इस भू-भाग पर हज़रत सैयदना इमाम हुसैन व उनके साथियों की याद में मरकजी इमामबाड़े की तामीर करवाई। करीब 12 साल तक तामीरी काम चलता रहा। जो 1796 ई. में मुकम्मल हुआ। अवध के नवाब आसिफुद्दौला की बेगम ने सोने-चांदी की ताजिया यहां भेजीं। जब अवध के नवाब ने गोरखपुर को अंग्रेजों को दे दिया तब अंग्रेजों ने भी इनकी माफी जागीर को स्वीकृत कर दिया। इसके अतिरिक्त कई गुना बड़ी जागीर दी।

*_दरवेश हजरत सैयद रौशन अली शाह फारसी, उर्दू जानते थे लेकिन दस्तखत हिंदी में करते थे_*

मियां बाजार स्थित ऐतिहासिक मियां साहब इमामबाड़े की ख्याति महान दरवेश हजरत सैयद रौशन अली शाह अलैहिर्रहमां की वजह से है। आम दिनों में प्रत्येक गुरुवार, शुक्रवार को भी अकीदतमंद मजार की जियारत कर फातिहा पढ़ते हैं। खासकर गुरुवार को हिन्दू-मुस्लिम समुदाय के लोग मजार की जियारत करते हैं और हजरत रौशन अली के वसीले से अल्लाह से दुआ मांगते हैं। अकीदतमंद धूनी की राख तबर्रुक के तौर पर साथ ले जाते है। मुहर्रम माह में तो यहां की रौनक देखने लायक होती है। “मशायख-ए-गोरखपुर” किताब में आपकी ज़िंदगी पर विस्तृत रोशनी डाली गई है। किताब में है कि आप हमेशा अल्लाह की इबादत में लगे रहते थे। अहले बैत (पैगंबर-ए-आज़म हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के घर वाले) से बहुत मुहब्बत रखते। हज़रत सैयदना इमाम हुसैन रदियल्लाहु तआला अन्हु व उनके साथियों की नियाज-फातिहा के लिए इमामबाड़ा स्थापित किया। हजरत सैयद रौशन अली शाह खास किस्म का पैरहन, सफेद साफा व सफेद चादर पहनते थे। खड़ाऊ पहनने की आदत थी। न गोश्त खाते थे और ही न नमक। चटाई पर बैठते थे। हिंदू के हाथ का बना खाना खाते थे। फारसी, उर्दू जानते थे मगर दस्तख़त हमेशा हिंदी में करते थे। अपने करीब एक धूनी रखती थे जो हमेशा सुलगती रहती थी। नमाज के पाबंद थे। आबिद दरवेश थे। आपने मस्जिद, पुल, कुंआ, इमामबाड़ा की मरम्मत, मुसाफिरों के लिए कुछ ठहरने की जगह, स्कूल, ग्यारहवीं शरीफ, ईद मिलादुन्नबी, मुहर्रम, बुजुर्गों का नियाज-फातिहा, उर्स, यतीमों व बेवाओं की मदद के लिए दिल खोल कर खर्च करते थे। सारी ज़िंदगी राहे खुदा में खर्च करते रहे। जिक्र व फिक्र का अभ्यास करते रहे। इमामबाड़ें से बाहर आप नहीं निकलते थे। यहीं फकीरों, दरवेशों और तालिबाने हक़ का एक मजमा लगा रहता था। आपने सारी ज़िंदगी इबादत, खिदमत में गुजार दी। गोरखपुर में उन्हें अपने नाना से दाऊद-चक नामक मुहल्ला विरासत में मिला था। उन्होंने यहां इमामबाड़ा बनवाया जिस वजह से इस जगह का नाम दाऊद-चक से बदलकर इमामगंज हो गया। मियां साहब की ख्याति की वजह से इसको मियां बाजार के नाम से जाना जाने लगा। वर्ष 1818 ई. में आपका निधन हो गया। मगर आपका नाम हमेशा आपके कारनामों से रौशन रहेगा।

*_हजरत रौशन अली के समाने झुक गया अवध का नवाब_*

अवध के नवाब आसिफुद्दौला शिकार के बेहद शौकीन थे। हाथी पर सवार शिकार करते हुए वह गोरखपुर के घने जंगलों में आ गये। इसी घने जंगल में धूनी (आग) जलाये दरवेश रौशन अली शाह बैठे थे। शिकार के दरम्यान नवाब ने देखा एक बुजुर्ग कड़कड़ाती ठंडक में बिना वस़्त्र पहने धूनी जलाए बैठे हैं। उन्होंने अपना कीमती दोशाला (शाल) उन पर डाल दिया। दरवेश ने उस धूनी में शाल को फेंक दिया। यह देख कर नवाब नाराज हुए। इस पर रौशन अली शाह ने धूनी की राख में चिमटा डाल कर कई कीमती दोशाला (शाल) निकाल कर नवाब की तरफ फेंक दिया। यह देख नवाब समझ गए कि यह कोई मामूली शख़्स नहीं बल्कि अल्लाह का वली है। नवाब आसिफुद्दौला ने तुरंत हाथी से उतर कर मांफी मांगी।

*_आज भी मौजूद है रौशन अली का सामान व जलाई धूनी_*

हजरत सैयद रौशन अली शाह का दांत, हुक्का, चिमटा, खड़ाऊ तथा बर्तन आदि आज भी इमामबाड़े में मौजूद है। हजरत सैयद रौशन अली शाह ने इमामबाड़े में एक जगह धूनी जलाई थी। वह आज भी सैकड़ों वर्षाें से जल रही है। यहां सोने-चांदी की ताजिया भी है। जो मुहर्रम माह में दिखाई जाती है।

*_यह हुए हैं मियां साहब इमामबाड़ा के सज्जादानशीन_*

मियां बाजार स्थित इमामबाड़े की देखभाल सूफी हजरत सैयद रौशन अली शाह करते रहे। वर्ष 1818 ई. में हजरत रौशन अली शाह के शिष्य व भतीजे सैयद अहमद अली शाह इस इमामबाड़े के उत्तराधिकारी हुए। इन्होंने ही मियां साहब की उपाधि धारण की जो शिष्य परम्परा से चली आ रही है। इनके पिता का नाम सैयद फौलाद अली था। सैयद रौशन अली शाह ने सैयद अहमद अली शाह की देखभाल अपने जिम्मे ली। बाबा की शगिर्दी में अहमद अली शाह की तरबीयत हुई। सैयद अहमद अली ने अपनी मेहनत व सलाहियत से अपने इल्म को निखारा। 17 साल की उम्र में शेरो शायरी शुरू की। उन्होंने उर्दू, अरबी, फारसी तीनों जुबानों में महारत हासिल की। उन्होंने कई किताबें लिखी। पहली किताब ‘कशफुल बगावत’ लिखी जो 1857 ई. के जंगे आजादी पर थी। दूसरी किताब ‘नूरे हकीकत’ लिखी। इसका मौजू मजहब था। तीसरी किताब ‘ महबूब-उत-तवारीख’ लिखी। जिसमें उन्होंने गोरखपुर की तारीख को लिखा। वह बहुत जहीन थे। बाद में उनके उत्तराधिकारी एवं इमामबाड़े के सज्जादानशाीन सैयद वाजिद अली शाह वर्ष 1915 ई. तक सज्जादानशीन रहे। इसके बाद नौ साल की उम्र में ही सैयद जव्वाद अली शाह सज्जादानशीन बने। वह वर्ष 1916 से 1972 ई. तक सज्जादानशीन रहे। इसके बाद बड़े मियां साहब के नाम से मशहूर सैयद मजहर अली शाह वर्ष 1973 से 1986 ई. तक सज्जादानशीन रहे। वर्तमान में सैयद अदनान फर्रूख शाह वर्ष 1987 ई. से सज्जादानशीन हैं।

*_इमामबाड़े में है पहले सज्जादानशीन की तस्वीर_*

इमामबाड़े में वर्ष 1818 ई. में बने पहले सज्जादानशीन सैयद अहमद अली शाह की बेहतरीन तस्वीर है। जिसे चित्रकार जियाउद्दी ने एक पुरानी तस्वीर से बनाया है। जिसमें सैयद अहमद अली शाह को दर्शाया गया है। मियां साहब इमामबाड़े के दूसरे सज्जादानशीन सैयद वाजिद अली शाह एवं नौ साल की उम्र में तीसरे सज्जादानशीन बने सैयद जव्वाद अली शाह की पेंसिल से बनी तस्वीर भी है। कलाकार ने पेंसिल के जरिये कैमरे की तर्ज पर हुबहु बनाया है। सैयद वाजिद अली शाह के साथ सैयद जव्वाद अली शाह बैठे हुए हैं। इसके अलावा सैयद जव्वाद अली शाह की तस्वीर है।

*_मियां साहब इमामबाड़े में सोने-चांदी की ताजिया है_*

मियां साहब इमामबाड़ा के अंदर सोने और चांदी की ताजिया है। छह एकड़ में मरकजी इमामबाड़ा की तामीर नवाब आसिफुद्दौला ने 1796 ई. में करवाई। नवाब व उनकी बेगम ने सोना-चांदी का ताजिया दिया। इसे सात दरवाजों व सात तालों में बंद रखा जाता है। तीन से दस मुहर्रम की दोपहर तक लोग यहां ताजिए को देखने आते है। अवध के नवाब ने करीब 5.50 किलो सोने की ताजिया दिया था। बुजुर्ग की करामत सुनकर नवाब की बेगम ने इमामबाड़े में चांदी की ताजिया दी थी। मुहर्रम का चांद दिखने के बाद इमामबाड़ा के उत्तराधिकारी सोने चांदी ताजिया वाले कमरे में चाबी लेकर पहुंचते है। उसके बाद ताजिया को रखे जाने वाले कमरे का दरवाजा खोला जाता है। शहर के सर्राफ को इसकी सफाई की जिम्मेदारी दी जाती है। हर साल तीन मुहर्रम की शाम से सोने-चांदी के ताजियों के देखा जाना शुरू होता है। सोने चांदी का अलम झंडे भी दिखाया जाता है। मियां साहब इमामबाड़ा में एक ताजिया ऐसा भी है जो हजरत रौशन अली शाह ने बनवाया था। वह लकड़ी का ताजिया मुहर्रम में लोगों के आकर्षण का केंद्र रहता है।
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