विषय: “भारतीय लोकतंत्र में आदिवासी संस्कृति, अन्य जातीय-धार्मिक समूह और समानता का प्रश्न”
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विषय: “भारतीय लोकतंत्र में आदिवासी संस्कृति, अन्य जातीय-धार्मिक समूह और समानता का प्रश्न”
हाल ही में केंद्रीय मंत्री किरण रिजिजू (किरण ऋजुजु) ने आदिवासी समाज की संस्कृति और परंपराओं की रक्षा की बात कही। उनका तर्क था कि आदिवासी समुदाय का एक विशिष्ट सांस्कृतिक अस्तित्व है, जिसकी रक्षा करना सरकार और समाज की जिम्मेदारी है।
परंतु प्रश्न यह उठता है कि जब भारत में आदिवासियों के अलावा भी कई जातीय और धार्मिक समूह हैं—जिनकी अपनी-अपनी विशिष्ट संस्कृति, परंपराएँ और आस्था है—तो क्या केवल आदिवासियों को विशेष संवैधानिक-सांस्कृतिक संरक्षण देना अन्य समुदायों के साथ भेदभाव नहीं है?
मुख्य प्रश्न
1. समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14–18):
भारतीय संविधान सभी नागरिकों को समानता का अधिकार देता है।
यदि आदिवासी समाज की संस्कृति में हस्तक्षेप न करने की नीति अपनाई जाती है, तो वही अधिकार अन्य धार्मिक व जातीय समूहों को भी मिलना चाहिए।
2. संस्कृति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 29 और 30):
अनुच्छेद 29: किसी भी समूह को अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को संरक्षित करने का अधिकार है।
अनुच्छेद 30: अल्पसंख्यकों को अपने शैक्षणिक संस्थान स्थापित और संचालित करने का अधिकार है।
सवाल यह है कि क्या यह अधिकार व्यवहारिक रूप से सभी समूहों को बराबरी से मिल रहे हैं या केवल कुछ विशेष समुदायों तक सीमित हैं।
3. सांस्कृतिक विविधता बनाम भेदभाव:
आदिवासियों की संस्कृति की रक्षा करना निश्चित रूप से आवश्यक है।
लेकिन, जब अन्य जातीय समूह—जैसे दलित मुसलमान, पसमांदा समुदाय, उत्तर-पूर्वी जनजातियाँ, द्रविड़ जातीय समूह—अपनी परंपराओं और सामाजिक प्रथाओं की रक्षा की मांग करते हैं, तो क्या उनकी आवाज़ को समान महत्व दिया जाता है?
भेदभाव का तर्क
यदि राज्य और समाज आदिवासी संस्कृति को छेड़ने से बचता है लेकिन अन्य समूहों की धार्मिक या सामाजिक परंपराओं में दखल देता है, तो यह “चयनात्मक सांस्कृतिक संरक्षण” कहलाएगा।
उदाहरण:
वक़्फ़ संपत्ति प्रबंधन में सरकार हस्तक्षेप करती है।
पसमांदा मुसलमानों को SC दर्जा देने से रोका गया, जबकि हिंदू दलितों को दिया गया।
कई जातीय समूहों की विवाह परंपराओं, रीति-रिवाजों पर अदालत और प्रशासन दखल करता है।
इससे यह धारणा बनती है कि भारतीय राज्य सभी संस्कृतियों को बराबरी से नहीं, बल्कि राजनीतिक और ऐतिहासिक कारणों से चयनात्मक ढंग से संरक्षण देता है।
निष्कर्ष
संविधान कहता है कि सभी समुदायों को अपनी संस्कृति और परंपरा बचाने का अधिकार है।
केवल आदिवासियों की संस्कृति को सुरक्षित करना और अन्य जातीय-धार्मिक समूहों की परंपराओं को अनदेखा करना समानता के अधिकार का उल्लंघन है।
किरण रिजिजू का बयान स्वागत योग्य है, लेकिन इसे सभी जातीय और धार्मिक समूहों पर लागू करना ही असली समानता होगी।
अन्यथा यह भेदभाव माना जाएगा कि एक समूह की संस्कृति को “राष्ट्रीय धरोहर” मानकर बचाया जाए और दूसरे की परंपराओं में सरकारी हस्तक्षेप किया जाए।
इरफान जामियावाला