पारंपरिक लोकगीतों के दर्पण में छठ महापर्व।
1 min readपारंपरिक लोकगीतों के दर्पण में छठ महापर्व।
वैशाली जिले से कौशल किशोर सिंह की रिपोर्ट।
(यही एक ऐसा पर्व जिसमें ईष्ट से वरदान में बेटी मांगी जाती है )
लोक आस्था का महापर्व छठ का अनुष्ठान आज अपार श्रद्धा और विश्वास के साथ किया जा रहा है l शहर-शहर, गांव-गांव, गली-गली छठ गीतों से गुलज़ार है l वास्तव में छठ गीतों से ही छठ का एहसास होने लगता है l छठ के गीतों में न सिर्फ़ छठ की महिमा होती है बल्कि पूरा विधि-विधान रहता है l वैशाली जिले
के गोरौल प्रखंड अंतर्गत आरपीसीजे उच्च माध्यमिक विद्यालय बेलवर घाट,के हिंदी के प्रसिद्ध शिक्षक व जिले के प्रसिद्ध कवि अनिल कुमार ने लोकगीतों के दर्पण में छठ महापर्व को किस रुप में देखा है,आईए हम भी देखें:-
महापर्व छठ का अनुष्ठान बड़ा ही अनूठा है। इसके विधि-विधान अद्वितीय तो है ही,इसकी जीवंतता बनाए रखने में लोकगीतों की भूमिका अहम् रही है l गीतों में जो मिठास है वह मन को मोह लेती है l सच कहें तो इन्हीं लोकगीतों के माध्यम से बिहार की संस्कृतियां जीवंत होती रही है l माटी की इसी सुगंध ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी छठ पूजा की महिमा को सुवासित किया है। इन गीतों के साथ ही तैयारियां शुरु हो जाती है l पूजा के हर क्रियाकलाप लोक गीतों के ही सान्निध्य में संपन्न होते हैं l शुरुआत इस प्रकार: -भाई द्वारा अपनी बहन से पूछना-केकरा लागी करइछे गे बहिनी,छठ माई के वरतिया l बहन का जवाब:- तोहरा लागी करइछी हो भैया, छठ माई के वरतियाlनिस्संदेह यह व्रत पति,पुत्र-पुत्री,भाई-बहन,माता-पिता आदि सगे-संबंधियों की काया कंचन के लिए तथा परिवार की समृद्धि के लिए किया जाता है l इस पर्व में जात-पात का बंधन टूटता सा दिखता है l सबको साथ लेकर चलने का संदेश गीत के इन पंक्तियों में देखा जा सकता है – छोटी-मोटी मालिन बिटिया,कि फूल लोढ़े गेल, फूलवा ले अइहे गे मालिन, अर्घ के बेर l छोटी-मोटी डोमिन बिटिया कि सूप बिने गेल, सूपवा ले अइहे गे डोमिन,अर्घ के बेर l
छठ महापर्व ही एक ऐसा पर्व है जिसमें बेटी के जन्म हेतु बरदान मांगा जाता है l सचमुच सृष्टि की वाहिका नारी की उत्पति होती रहनी चाहिए जो इन पंक्तियों में द्रष्टव्य है: –
रुनकी-झुनकी बेटी मांगिला,पढ़ी पंडितवा दामाद हे छठी मइया l यहां शिक्षा पर भी जोर दिया गया है।
नहाय-खाय से लेकर उदयीमान सूर्य को अर्घ देने तक इस पर्व में पवित्रता का पूरा-पूरा ख्याल रखा जाता है l गीतों में देख लिजिए:-केलवा जे फरले घवद से, ओह पर सुगा मेड़रायl मतलब ईष्ट देव की अराधना में किसी प्रकार की अशुद्धता और अपवित्रा बर्दाश्त नहीं l फिर यदि सुगा नहीं चेतता है तो इसकी शिकायत वह ईष्ट देव से करेगीlगीत की पंक्ति: -उ जे खबरी जनइबो अदित से, सुगा दिहले जुठिआए…l चेतावनी के बाद भी सुगा जुठिआने को उद्दत होता है तब व्रती द्वारा यह कहना- मारबो रे सुगवा धनुष से, सुगा जईबे मुरछाए l
षष्ठी के दिन ठेकुआ, पिड़कीया आदि बड़ा जतन से बनाती है l पूजन सामग्री दऊरा में सजा दिया जाता है l घाट पर जाने का समय होता है l सब तैयार होते हैं l तब व्रती अपने पति से बहंगी उठाकर घाट पर चलने का अनुरोध करती है: -पेन्ह न बलम जी पियरिया, बहंगी घाट पहुंचाए. .l सभी दऊरा (बहंगी) उठाकर घाट की ओर चल पड़ते हैं l महिलाएं गाती जा रही है: -कांच ही बांस के बहंगिया,बहंगी लचकत जाए l बटोही के बारे में – बाट ही पूछथिन बटोहिया,बहंगी किनका के जाए? व्रती का जबाब:- उ जे आन्हर होईबे रे बटोहिया, बहंगी छठी माई के जाये l
घाट पहुंचकर अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ दिया जाता है l फिर रात में कोशी भरण की रश्म पूरी की जाती है l भोर में पुन:घाट पहुंचकर डाला सजाया जाता है l उदयीमान सूर्य को अर्घ देने की प्रक्रिया शुरु हो जाती है l सूर्य के उगने में यदि देर भी हो रही हो तो घंटो तक प्रतीक्षा के संकल्प के साथ यह अनुरोध:–सब दिन उगइछ हो दीनानाथ,अहो भोर-भिनसार,आजुक दिनमा हो दीनानाथ, हो लगैल काहे देर…l तब भगवान भास्कर द्वारा यह स्पष्टीकरण: -बाट में भेटीये गेल गे अबला, एक टा अन्हरा कुरुप, अंखिया दिअइते गे अबला, हो लागल एति देर l इस तरह बाझिन को पुत्र देने,कोढ़ी को काया देने में हुई देर का जिक्र भगवान भास्कर द्वारा करना किसी कौतूहल से कम नही है l इस तरह हम देखते हैं कि पूरा का पूरा विधि-विधान लोकगीतों के सान्निध्य में ही संपन्न होता है और यही इस पर्व की महानता भी है l गीतों में संवाद,उलाहना,अनुरोध, डांट,सलाह आदि देखने को मिलते हैं जो इसके प्रति आस्था की डोर को मजबूत बनाते हैं l