इरफ़ान जामियावाला और बतख़ मियाँ अंसारी : भूला हुआ हीरो, मिल रही है नयी पहचान
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इरफ़ान जामियावाला और बतख़ मियाँ अंसारी : भूला हुआ हीरो, मिल रही है नयी पहचान
भारत के आज़ादी की तहरीक में कई ऐसे किरदार हैं जो कभी इतिहास की किताबों में जगह नहीं बना सके। बिहार के बहादुर रसोइये बतख़ मियाँ अंसारी उन्हीं में से एक नाम है। महात्मा गाँधी की जान बचाने वाले इस गुमनाम हीरो की कहानी को आज़ादी के सौ साल बाद भी बहुत कम लोग जानते हैं। लेकिन अब मशहूर समाज शास्त्री, लेखक और निर्देशक इरफ़ान अली जामियावाला अपनी आने वाली फ़िल्म “मोहसिन ए गाँधी बतख़ मियाँ अंसारी” के ज़रिये इस सच्चाई को सामने लाने वाले हैं।
गांधी और बतख़ मियाँ का रिश्ता
साल 1917 में गाँधीजी बिहार के चंपारण पहुँचे। वहाँ उन्होंने नील की खेती करने वाले किसानों की हालत देखी और उनके साथ खड़े हो गए। अंग्रेज़ बागान मालिकों को यह नागवार गुज़रा। अंग्रेज़ प्रबंधक इरविन ने साज़िश रचते हुए गाँधीजी के रसोइये बतख़ मियाँ अंसारी को आदेश दिया कि वह गाँधीजी के दूध में ज़हर मिला दे।
लेकिन बतख़ मियाँ ने सत्ता की आज्ञाकारिता को ठुकरा कर इंसानियत और सच्चाई का रास्ता चुना। उन्होंने गाँधीजी को सब कुछ बता दिया और उनकी जान बचा ली। इस ग़ैरत और बहादुरी की भारी क़ीमत बतख़ मियाँ और उनके पूरे ख़ानदान को चुकानी पड़ी। अंग्रेज़ों ने उनका घर तबाह कर दिया, माल-मवेशी लूट लिए, और परिवार को तबाह कर डाला।
फ़ारूक़ शेख की गवाही
मशहूर अदाकार फ़ारूक़ शेख ने 1996 में अपने घरवालों को लिखे ख़त में लिखा था –
“अगर बतख़ मियाँ न होते, तो भारत का इतिहास कुछ और होता।”
यह जुमला अपने आप में बतख़ मियाँ की अहमियत बयान करता है।
इतिहास की नाइंसाफ़ी
आज़ादी की लड़ाई में अहम किरदार निभाने के बावजूद बतख़ मियाँ का नाम कहीं दर्ज नहीं हुआ। गांधीजी को तो “महात्मा” का दरजा मिला, लेकिन जिन लोगों ने उनकी जान बचाई, जिनके क़ुर्बानियों से सत्याग्रह ज़िंदा रहा, उन्हें गुमनामी मिली। यह पसमांदा समाज की उस ऐतिहासिक नाइंसाफ़ी की मिसाल है, जिसमें निचली तबक़ात के मुसलमानों और दलित-पिछड़ों के बलिदानों को नज़रअंदाज़ कर दिया गया।
इरफ़ान जामियावाला का मिशन
मीडिया क्राफ़्ट्स स्टूडियो के डायरेक्टर और पसमांदा समाज के आधुनिक प्रवक्ता इरफ़ान अली जामियावाला ने ठाना है कि इतिहास की इन गुमनाम शख़्सियतों को सामने लाया जाए। उनकी फ़िल्म “बतख़ मियाँ अंसारी” सिर्फ़ एक फ़िल्म नहीं बल्कि एक तहक़ीक़ाती सफ़र है, जो बताएगी कि असली गाँधी का चेहरा क्या था और उनके पीछे किन बेनाम सिपाहियों की क़ुर्बानियाँ थीं।
इरफ़ान जामियावाला का कहना है:
“हमारा फ़र्ज़ है कि हम अपने पसमांदा शहीदों और गुमनाम हीरोज़ का नाम आने वाली नस्लों तक पहुँचाएँ। बतख़ मियाँ का नाम अगर इतिहास में दर्ज होता, तो पसमांदा समाज की क़ीमत आज और भी अलग होती।”
हमारी ज़िम्मेदारी
महात्मा गाँधी की जयंती पर जब पूरा मुल्क उन्हें याद करता है, तो हमें उस रसोइये बतख़ मियाँ अंसारी को भी याद करना चाहिए, जिसने अपनी ज़िंदगी की क़ीमत पर गाँधीजी को बचाया।
बतख़ मियाँ की कहानी हमें ये सबक़ देती है कि –
सच्चाई और इंसानियत का रास्ता हमेशा मुश्किल होता है।
गुमनाम लोग ही इतिहास का असली आधार होते हैं।
पसमांदा समाज का संघर्ष सिर्फ़ बराबरी के लिए नहीं बल्कि अपनी पहचान बचाने के लिए भी है।
इरफ़ान जामियावाला की आने वाली फ़िल्म “बतख़ मियाँ अंसारी” पसमांदा इतिहास और भारत की आज़ादी की तहरीक में छिपे सच को सामने लाने का एक बड़ा कदम है।
इरफान जामियावाला
लेखक, निर्देशक, समाज सेवक